vidyapati ka jivan parichay | विद्यापति का जीवन परिचय

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विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। विद्यापति का जन्म 1350 ई को गाँव बिस्फी, जिला- मधुबनी, मंडल- दरभंगा, बिहार में हुआ था। विद्यापति मिथिला निवासी थे। वे बिसइवार वंश के विष्णु ठाकुर की 8वी पीढ़ी की संतान थे। विद्यापति की माता का नाम गंगा देवी और पिता का नाम गणपति ठाकुर थे।

विद्यापति प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासिल की। विद्यापति की पत्नी का नाम मंदाकिनी और पुत्री का नाम दुल्लहि था। विद्यापति के पुत्र का नाम हरपति और पुत्रवधू का नाम चंद्रकला था। वे बिसइवार वंश के विष्णु ठाकुर की आठवीं पीढ़ी की संतान थे। उनकी माता गंगा देवी ओर पिता गणपति ठाकुर थे। वैसे रामवृक्ष बेनीपरी उनकी माँ का नाम हाँसनी देवी बताते हैं, पर विद्यापति के पद की भनिता (हासिन देवी पति गरुड़नरायन देवसिंह नरपति) से स्पष्ट होता है कि हाँसनी देवी महाराज देवसिंह की पत्नीे का नाम था। कहते हैं कि गणपति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव (वर्तमान मधुबनी जिला में अक्स्थित) की घनघोर आराधना की थी, तब जाकर ऐसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हई।

उनके जन्म-स्थान को लेकर देर तक विवाद चलता रहा। लोग उन्हें बंगला के कवि प्रमाणित करने का कठोर श्रम करते रहे। दरअसल शृंगार-रस से ओत.प्रोत उनकी राधा-कृष्ण विषयक ‘पदावली’ मिथिला के कंठ-कंठ में व्याप गई थी। उन दिनों विद्याध्ययन करने बंगाल के शिक्षार्थी मिथिला आया करते थे। काव्य संचरण की प्रक्रिया जो भी रही हो, पर उन्हीं दिनों प्रबल कृष्णभक्त चैतन्य महापभु के कानों में विद्यापति के पदों की मोहक ध्वनि पड़ी। वे मंत्रमुग्ध हो उठे और ढूँढ-ढूँढकर विद्यापति के पद कीत्र्तन की तरह गाने लगे। यह परंपरा चैतन्यदेव की शिष्य.परंपरा में भली भाँतिुलित हुई। कई भक्तों ने तो उस प्रभाव में कीर्तनों की रचना भी कीं।

फलस्वरूप बंगीय पदों में विद्यापति के काव्य-कौशल का वर्चस्व स्थापित हो गया। जब स्थान-निर्धारण की बात चली तो आनन-फानन बंगदेशीय बिस्फी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा तलाश ली गईं और विद्यापति को बंगला का कवि प्रमाणित किया जाने लगा। अनुमान किया जा सकता हे कि बंगला ओर मेथिली की लिपियों में कुछ हद तक साम्य होना भी इसमें सहायक हुआ होगा। पर महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, जस्टिस शारदाचरन मित्र, नगेंद्र नाथ गुप्त जैसे बंगीय विद्वानों ने अपनी भागीदारी से यह विवाद समाप्त कर दिया तथा इन्होंने स्पष्ट कहा कि विद्यापति मिथिला-निवासी थे।

इस विषय पर सर्वप्रथम डॉ. ग्रियर्स न ने चर्चा शुरू की, और व्यवस्थित तर्क के साथ विद्यापति का बिहारवासी होना प्रमाणित किया।

उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासिल की।

प्रमुख रचनायें

महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्यशास्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुश्य एवं दूरदर्शिता सो उनका मार्गदर्शन करते रहे।

जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है

(क) देवसिंह

(ख) कीर्तिसिंह

(ग) शिवसिंह

(घ) पद्मसिंह

(च) नरसिंह

(छ) धीरसिंह

(ज) भैरवसिंह और

(झ) चन्द्रसिंह।

इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है:

  • लखिमादेवी (देई)
  • विश्वासदेवी और
  • धीरमतिदेवी।

कृतियाँ

संस्कृत में- पुरुषपरीक्षा

भूपरिक्रमा : राजा देव सिंह की आज्ञा से विद्यापति ने इसे लिखा। इसमें बलराम से सम्बंधित शाप की कहानियाँ हैं जो मिथिला में सुनाई थी।

  • लिखनावली
  • शैवसर्वस्वसार
  • शैवसर्वस्व सार प्रमाण भूतपुराणसंग्रह
  • गंगावाक्यावली
  • विभागसार
  • दानवाक्यावली
  • दुर्गाभक्तितरंगिणी
  • गयापत्तलक
  • वर्षकृत्य
  • अवहट्ट में
  • कीर्तिलता
  • कीर्तिपताका तथा शिवसिंह का राज्यारोहण वर्णन एवं युद्ध-वर्णन

मैथिली में

  • पदावली

निधन

जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। नगेन्द्रनाथ गुप्त सन् 1440 ई. को महाकवि की मृत्यु तिथि का वर्ष मानते हैं। महामहोपाध्याय उमेश मिश्र के अनुसार सन् 1466 ई. के बाद तक भी विद्यापति जीवित थे। डॉ. सुभद्र झा का मानना है कि “विश्वस्त अभिलेखों के आधार पर हम यह कहने की स्थिति में है कि हमारे कवि का मसय 1352 ई. और 1448 ई. के मध्य का है।

सन् 1448 ई. के बाद के व्यक्तियों के साथ जो विद्यापति की समसामयिकता को जोड़ दिया जाता है वह सर्वथा भ्रामक हैं।” डॉ. विमानबिहारी मजुमदार सन् 1460 ई. के बाद ही महाकवि का विरोधाकाल मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह विद्यापति का मृत्युकाल 1447 मानते है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय ज़िला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था।

निष्कर्ष

तो दोस्तों में आशा करता हु की आपको ये vidyapati ka jivan parichay जरूर पसंद आया होगा |

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