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Nagarjun ka jivan parichay

पारिवारिक जीवन
नागार्जुन के पिता का नाम गोकुल मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती उमादेवी था। उनकी माता सरल ह्य्दय, परिश्रमी एवं दृढ़ चरित्र महिला थी। दुर्भाग्य से चार वर्ष की अवस्था में ही बालक वैद्यनाथ को माता उमादेवी के स्नेहांचल से वंचित होना पड़ा। इनके पिता गरीब तो थे ही, पर स्वभाव से भी अक्कड़ और और कठोर थे। सन् 1943 के सितम्बर मास में काशी के गंगा किनारे मणिकर्णिका घाट पर उनका देहान्त हुआ। बचपन में ही कथाकार के बाल मन पर पहली छाप माँ और विधवा चाची के पीड़ा भरे जीवन की थी। एक अशिक्षित, मैथिली ब्राह्मण परिवार में नारी का वैधव्य कितना अपमानित होता है, उसकी प्रतीति उनके उपन्यासों के द्वारा होती है। बाबा नागार्जुन का उनके घर के प्रति उदासीनता का मूल कारण उनके पिता का माँ उमादेवी के प्रति कठोर व्यवहार था।
पिता के व्यक्तित्व में गंभीरता का अभाव एवं लापरवाही की प्रवृत्ति थी। वे अपने एकमात्र पुत्र को कंधेपर बैठाकर अपने सम्बन्धियों के यहाँ, इस गाँव से उस गाँव आया – जाया करते थे। घर में किसी प्रकार का बन्धन न होने के कारण अधिकतर रिश्तेदारों के यहाँ ही दिन गुजारते थे। अपनी पारिवारिक और वैचारिक पृष्ठभूमि के सम्बन्ध में नागार्जुन ने अपने बहुचर्चित आत्मलेख ‘आइने के सामने’ में विस्तार से लिखा है
“मैं उन व्यक्तियों में नही था जिनका जन्म सम्भ्रान्त, सुशिक्षित, सम्पन्न परिवारों में हुआ था। मेरी मूल शिक्षा घरेलू ढंग की परम्परावादी ब्राह्मण खानदान की सामान्य स्थिति की थी। पिता अकिंचन थे और पारिवारिक जिम्मेदारियों से कतराने की लत उनमें स्पष्ट नजर आती थी। उस स्थति में लगता है अपठित होने के कारण मेरे पिता को घुटन भरी ग्लानियाँ झेलनी पड़ी थी और इसी से पिता ने अपने एकमात्र पुत्र को संस्कृत पाठशाला में बैठा दिया और बड़ी मुस्तैदी से निगरानी करने लगे | इस प्रकार गाँव की पाठशाला में ही संस्कृत की प्रथमा परीक्षा पास की |”
शिक्षा
नागार्जुन की शिक्षा का आरम्भ परंपरागत विधि से संस्कृत पाठशाला तरौनी, गनौली और पचगछिया में हुआ। तरौनी में संस्कृत की प्रथम परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में गनौली के संस्कृत विद्यालय से ‘व्याकरण मध्यमा’ की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात पचगछिया (जिला सहरसा) उपरांत चार वर्ष तक काशी में पढत़े रहे और संस्कृत में ‘आचार्य’ परीक्षा पास की।
सन् 1926 में उन्होंने कलकत्ता में रहकर ‘काव्यतीर्थ’ की उपाधि पाई और ‘साहित्य शास्त्राचार्य’ की उपाधि मिलने के बाद कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की । साहित्य शास्त्राचार्य तक शिक्षा लेने के पश्चात केलानाया, कोलंबो में पाली भाषा और बौद्ध दर्शन का विशेष अध्ययन किया।
वैवाहिक जीवन
नागार्जुन का विवाह सन् १९३१ में हीरपुर बवशी टोेल के निवासी कृष्णकांत झा की पुत्री अपराजिता देवी के साथ हुआ। तत्कालीन स्थिति के सम्बन्ध में शोभाकान्त ने लिखा है
“मेरे नाना ने जाने या अनजाने में अपनी बेटी को उस घर भेज दिया, जहाँ एक पढ़े लिखे युवक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। मेरी याददास्त तक नाना के यहाँ से भोजन के लिए अनाज आता था। घर चलाने के लिए खर (फूस) बाँह रस्सी और मज़दूरों को मज़दूरी देने के लिए अनाज काफी दिनों तक वहीं से आता था।”
नागार्जुन : जीवन और साहित्य, डॉ. प्रकाशचन्द्र भट्ट
साधारण बाहरी व्यक्तित्व वाले बाबा नागार्जुन का आंतरिक व्यक्तित्व बहुत ही आसाधारण था | उनकी स्स्दगी ही उन्हें आसाधारण बना देती थी | उनकी दैनिक आवश्यकताएं भी बेहद सीमित थीं, फिर भी वे मस्ती भरा जीवन जीते थे | अपनी ममत्व भावना, दूसरों को कष्ट न पहुचानें की प्रवृत्ति एवं आत्मसंतोष के कारण वे किसी को भी अपने परिवार के बुजुर्ग लगते थे।
“उनका समूचा जीवन एक झोले में रहता था, कापी, पेन, एक – दो छोटी डिबियायें, गमछा, एक पायजामा, अलीगढ़ कट जो सफेद न होकर कुछ बदरंगीपन लिए होता था। कुर्ता भी मोटी खादी का। दो – चार दिन कहीं निकल जाते और जब लौटते तो बस वही झोला कांधे पर चिपका रहता।”
नागार्जुन की रचनाएँ
उनके साधारण एवं सरल व्यक्तित्व की छाप उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखने मिलती है। उनकी रचनाओं में किसी भी प्रकार का दिखावा या बनावटीपन नहीं है। वह सहज एवं स्वाभाविक है। किसी हरफनमौला शख्सियत की तरह उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर लेखन किया है – जैसे उपन्यास, कहानी, काव्य, निबंध, जीवनी, अनुवाद इत्यादि। इसके अतिरिक्य संस्कृत, मैथिली, बंगला में भी साहित्य सृजन किया है।
नागार्जुन के उपन्यास
बाबा नागार्जुन का उपन्यासकार होना एक अहम बात है। उनके लगभग सभी उपन्यास जनचेतना के वाहक के रूप में व्याख्यायित किये जाते हैं । वे मूलतः ग्राम्य चेतना के वाहक आंचलिक कथाकार हैं। नागार्जुन ने व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रखकर उपन्यासों की रचना की है, परन्तु यह व्यक्ति एक सामाजिक इकाई भी है। नागार्जुन के द्वारा रचित उपन्यासों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
- रतिनाथ की चाची 1948
- बलचनमा 1952
- नई पौध 1953
- बाबा बटेसरनाथ 1954
- जमनिया का बाबा 1955
- दुखमोचन 1957
- वरुण के बेटे 1957
- कुम्भीपाक 1960
- हीरक जयंती 1961
- उग्रतारा 1963
- इमरतिया 1968
- पारो 1975
- गरीबदास 1989
नागार्जुन की कहानियां
नागार्जुन ने सन् 1936 से 1967 तक के अंतराल में केवल बारह कहानियों की रचना की, जिनका संग्रह सन् 1982 में ‘आसमान में चदा तैरे’ नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें निम्नलिखित कहानियाँ संग्रहित हैं | उनकी प्रथम कहानी ‘असमर्थदाता’ है जो मासिक पत्र ‘दीपक’ में 1936 में ‘अकिचन’ नाम से प्रकाशित हुई। बाद में सन् 1940 में वैद्यनाथ मिश्र के नाम से विशाल भारत में छपी।
- असमर्थदाता
- ताप-हारिणी
- जेठा
- कायापलट
- विशाखा मृगारमाता
- ममता
- विषमज्वर
- हीरक जयंती
- हर्ष चरित की पॉकिट एडीशन
- मनोरंजन टैक्स
- आसमान में चन्दा तैरे
- भूख मर गई थी
- सूखे बादलों की परछाईयाँ
निबंध
नागार्जुन द्वारा रचित निबन्धों की संख्या लगभग 56 हैं जो शोभाकान्त कृत ‘नागार्जुन रत्नावली भाग – ६’ में संकलित हैं । इसमें प्रस्तुत प्रमुख निबन्ध निम्नानुसार है |
- मृत्युंजय कवि तुलसौदास
- बुद्धयुग की आर्थिक व्यवस्था
- उपन्यास ही क्यों?
- मशक्कत को दुनिया
- कैलास की ओर
- आज का मैथिली कवि
- आज का गुजराती कवि
- मैथिली और हिन्दी
- अमृता प्रीतम
- नई चेतना
- पंजाब के पुरुषार्थी
- वैशाखी पूर्णिमा
- महाकवि वल्लतोल
- यशपाल
- बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
- अन्नहीनम् क्रियाहीनम
- बम भोलेनाथ
- सत्यानाशी जलप्रलय
- प्रेमचंद : एक व्यक्तित्व
- भ्रष्टाचार का दानव
- प्यारे हरीचंद्र की कहानी
- वन्दे मातरम
- इसके अतिरिक्त नागार्जुन ने धार्मिक, सांस्कृतिक पर्वों पर भी निबंध लिखे हैं जैसे – ‘दिपालवी’, ‘होली’, ‘वैशाख पूर्णिमा’ आदि।
नाटक
नागार्जुन ने अपने जीवनकाल में मात्र दो नाटकों का सृजन किया है, जिसके कथानक ऐतिहासिक प्रसंगों पर आधारित हैं। ये नाटक हैं –
- अनुकंपा
- निर्णय
- जीवनी
मृत्यु
लंबी अवधि तक बीमार रहने के पश्चात 5 नवम्बर 1998 ई. को इस असाधारण कवि की जीवन यात्रा पूर्ण हुई। हिन्दी और मैथिली साहित्य में दिए गये उनके अवदानों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। साहित्य समाज उनकी स्मृति को सदा सर्वदा याद करते हुए धन्यता का सुखद अनुभव करता रहेगा । उनके निधन पर डॉ. नामवर सिंह ने यह प्रतिक्रिया की थी कि “क्रोध के करुणा का इतना बड़ा कवि हमारे दौर में नहीं हुआ।” नागार्जुन ने अपने मृत्यु के सन्दर्भ में यह आकांक्षा व्यक्त की थी कि –
“मरूँगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जायेगा, निर्बाध अपनी चाल
सुनोगे तुम तो उठेगी क
मैं रहूँगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
निष्कर्ष
तो दोस्तों में आशा करता हु की आपको ये Nagarjun ka jivan parichay जरूर पसंद आया होगा |